60 प्रतिशत से कम घनत्व वाले वनो को वन नही मानने के खिलाफ दायर जनहित याचिका को लेकर हाईकोर्ट ने याचिकार्ताओं से तीन सप्ताह के भीतर मांगा जवाब
नैनीताल हाइकोर्ट ने दस हेक्टेयर से कम क्षेत्र में फैले या 60 प्रतिशत से कम घनत्व वाले वनो को वन नही मानने के खिलाफ दायर जनहित याचिकाओ की सुनवाई करते हुए कार्यवाहक मुख्य न्यायधीश रवि कुमार मलिमथ व न्यायमूर्ति एनएस धनिक केकी खंडपीठ ने सुनवाई करते हुए याचिकर्ताओ से तीन सप्ताह के भीतर प्रतिषपथपत्र पेश करने को कहा है । मामले।की अगली सुनवाई तीन सप्ताह के बाद कि तिथि नियत की है। जबकि सरकार के उक्त आदेश पर कोर्ट ने पहले ही रोक लगा रखी है। मामले के अनुसार नैनीताल निवासी पर्यावरणविद प्रोफेशर अजय रावत , विनोद पांडे और रेनू पाल ने अलग अलग जनहित याचिकाए दायर कर कहा है कि 21 नवम्बर 2019 को उत्तराखंड के वन एवं पर्यावरण अनुभाग ने एक आदेश जारी कर कहा है कि उत्तराखंड में जहां दस हेक्टेयर से कम या 60 प्रतिशत से कम घनत्व वाले वन क्षेत्र है उनको वनों की श्रेणी से बाहर रख गया है या उनको वन नही माना । याचिकर्ताओ का कहना है कि यह आदेश एक ऑफिसल आदेश है यह लागू नही किया जा सकता है क्योंकि न ही यह साशनादेश है न ही यह केबिनेट से पारित आदेश है सरकार ने इसे अपने लोगो को फायदा पहुचाने के लिए घुमाफिरा कर यह जीओ जारी किया है। याचिकर्ताओ का यह भी कहना है कि फारेस्ट कन्जर्वेशन एक्ट 1980 के अनुसार प्रदेश में 71 प्रतिशत वन क्षेत्र घोषित है जिसमे वनों की श्रेणी को भी विभाजित किया हुआ है परन्तु इसके अलावा कुछ क्षेत्र ऐसे भी है जिनको किसी भी श्रेणी में नही रखा गया । याचिकर्ताओ यह भी कहना है कि इन क्षेत्रों को भी वन क्षेत्र की श्रेणी सामिल किया जाय और जिससे इनके दोहन या कटान पर रोक लग सके। सुप्रीम कोर्ट ने 1996 के अपने आदेश गोडा वर्मन बनाम केंद्र सरकार में कहा है कि कोई भी वन क्षेत्र चाहे उसका मालिक कोई भी हो उनको वनो की क्षेत्र के श्रेणी में रखा जाएगा और वनों का अर्थ क्षेत्रफल या घनत्व से नही है। विश्वभर में भी जहाँ 0.5 प्रतिशत क्षेत्र में पेड़ पौधे है या उनका घनत्व 10 प्रतिशत है तो उनको भी वनों की श्रेणी में रखा गया । सरकार के इस आदेश पर वन एवं पर्यारण भारत सरकार ने कहा था कि प्रदेश सरकार वनों की परिभाषा न बदलें। उत्तराखण्ड में 71 प्रतिशत वन होने कारण कई नदियों व सभ्यताओं के अस्तित्व बना हुआ है।